शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

Takwar ki dhaar


तलवार की धार

सास की आस अब भी खत्म नहीं हुई है । वह सोचती है बहू अब तो उसकी कदर समझेगी । बहू का घर उसके बिना नहीं चल पाऐगा । उधर बहू का कहना है मैं बुढिया की सेवा क्यों करूं ? उसको टुकड़ा इस लिए डाल रही हूं कि लोग क्या कहेंगें ? भले ही इसने जवानी में मेरे साथ कुछ भी किया हो । मैं इस घर में आई थी तब मेरे साथ जो इसने किया था उसे याद करती हूं तो मेरा खून खोलने लगता है । फंस गया है बेचारा बिमल । एक तरफ मां है तो दूसरी तरफ पत्नी , करे तो क्या करे ? मां का जीवन जिन अभावों में गुजरा है उसको पत्नी जानना ही नहीें चाह रही । पत्नी जिसे सेवा कह रही है बिमल को लगता है वह फर्ज मान्न निभाया जा रहा है । मां और पत्नी दोनों दिन भर तलवारें निकाले घूमती रहती हैं , बिमल का जीवन तलवार की धार पर चलने जैसा होकर रह गया है । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें